खुशबुओं में लिपटकर यादों की गिलहेरियाँ बन्द आंखों में फुदकती हैं दिन रात। मैं तो सोता भी इसलिए हूँ कि सपने में इन अठखेलियों को जी सकूँ और जागता इसलिए कि स्पर्श को उसके पी सकूँ।
फूलों की खुशबुओं से भरता हूँ उस खालीपन को जिसमें तुम दूर होते, कभी फ़ोटो देखकर तो कभी आवाज़ लगाकर गलियों में बहक जाता हूँ |
लगता नहीं कि दिन बहुत हुए देखे तुम्हें.... इस इंतज़ार से मिल लेता हूँ बातों में तेरी।
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